Saturday, February 13, 2021

क्या वो अब भी इश्क़ करता होगा..??

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अपने दिन का हर एक हिस्सा,
कल तक मुझसे बाँटा करता था
मेरी  यादों में अक्सर जो...
रातों को जागा करता था




अपने तकिये को हम दोनों ने
एक-दूजे के नामों से नवाज़ा था
दीवानगी की हद थी वो तो...
समझदारी से कौनसा तकाज़ा था !! 

मेरी एक-एक तस्वीर को वो बुद्दु,
ना जाने कितनी ही बार निहारा करता था
मेरी आँखों से अक्सर वो...
मेरी रूह तक झाँका करता था

हर लम्हें मे सपने बुनना
उसको अच्छा लगता था
प्यार भरे हर तराने में
बस वो मुझे महसूस करता था

कई दिनों से मेरी उससे
बात नही हो पाई है...
ख़ता इसमें उसकी नहीं कोई
शामिल इसमें मेरी ही मनाई है

क्या करती फिर...??वो नहीं समझता!! 
ज़िन्दगियाँ अब है बदली हुई...
सपने थे सुनहरे कल तक जो
धुँध उन पर अब है चढ़ी हुई

ख़फा है... नफरत कर नहीं पाता
वो मुझसे ज़्यादा दिन नाराज़ रह नही पाता

पर उसकी ज़रा सी नाराजगी भी
कई नफरतों से भारी है...
मै सहन नहीं कर पाती इसको
आँखों से चश्में जारी है


उसके वो लम्बे पैग़ाम
मुझे बहुत याद आते हैं
भरी महफिल में भी अक्सर
मुझे तन्हा महसूस कराते हैं

कब खाता होगा... कब पीता होगा...
क्या वो अब भी चैन से जीता होगा..?

कब उठता होगा... कब सोता होगा...
क्या वो भी छिप-छिपकर रोता होगा..?

अपने दोस्तों से जब भी
मेरा ज़िक्र वो करता होगा
क्या "बेवफा" जैसे नामों से
वो सम्बोधन करता होगा !! 

आधी रात में जब भी
उसकी नीन्दे टूटा करती होंगी
मेरी यादें उस पागल को
सोने नहीं दिया करती होंगी

अपने खाली वक्त में कल तक
जो 'परी' को निहारा करता था



अपने पसंद के नेता पर जो
शान बघारा करता था

आज की तारीख में वो 
पुराने  msgs पढ़ता रहता है



बस SS देखा करता है
और आँखों को नम करता रहता है

मेरे हिस्से का छोड़ो अब तो
अपने हिस्से से भी कम हँसता होगा
क्या अब भी मरता होगा मुझ पर वो !! 
क्या मुझसे अब भी "इश्क़" करता होगा..??

Sunday, December 13, 2020

आखिर कब तक...???

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इस जलती बुझती लौ को आखिर
कब तक यूँ  सँभलना है...!!! 

लड़ना है क्या हर रोज़ हवा से
क्या हर दम यूँ दम भरना है..!!! 

शबनम की बूंदों को कहिये
कब तक मोती बन चमकना है..!!! 

कब गिरना है... कब उठना है... 
कब तक यूँ सिमटना है...!!! 

पहरे है ं क्या हवा पर भी तुम्हारे
क्या उसको भी थम- थम चलना है..!!! 

बारिश की बूँदों से बोलो
कब किसको भिगोना है..!!! 


इस तपती-जलती धरती पर
कब तक पाँव न धरना है..!!! 

औरों की ख़ुशियों की ख़ातिर
कब तक दीपक बन जलना है..!!! 

याद आने वाले से पूछो
रात के कौन-से पहर तक जगना है.!!! 

ख़ुद से ख़ुद तक का ये लम्बा सफर 
आखिर कब तक करना है..??? 



Tuesday, August 4, 2020

इक अधूरी मुलाकात

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धुन जो गुनगुनाई थी कल साथ मिलकर
तरानों की शक्ल में आज वो सामने आती है

झोपड़ी जो बनाई थी हमने अपने ख़्वाबों की
इस महल पर अक्सर भारी पड़ जाती है



वो तुम्हारी ग़ुस्ताख़ियां... और वो मेरी समझाईशें
मिलतीं हैं अकेले में तो मंद-मंद मुस्काती हैं

हसरतों की फेहरिस्त लंबी है यारा...
पगली हैं न... हक़ीक़त जानना ही नहीं चाहतीं हैं

वो किलोमीटर-से लंबे पैग़ाम अब भी पढ़ते हो क्या..???
जवाब तो जानती हैं.. फिर भी यही सवाल दोहराती हैं..

आख़िर बार याद है !! जो बड़ी देर तक अपना नाम सुनते रहे थे
यक़ीं मानो.. ये धड़कनें अब भी बस वही नाम दोहराती हैं

दिल तो शिद्दत से करता है सारी बेड़ियां तोड़ आऊं मैं
फिर दबे पांव ये समझदारी न जाने कहां से आ जाती है

अपने ही वजूद से लड़ती हूं रोज़ मैं
हर रोज़ ज़िम्मेदारी.. इश्क़ पर भारी पड़ जाती है

तरस गई है ये आंखें तुम्हारी इक झलक को
अब तो बस चांद के ज़रिए ही मुलाकात हो पाती है








Monday, June 8, 2020

एक आशियाना ऐसा भी...

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लफ़्ज़ों को तहज़ीब से सहेजकर

लहज़े से सिलवटों को निकाल रक्खा है
क़ाफ़िये के बिछौने पर मैंने
ग़ज़लों के तकिये को सजा रक्खा है

दस्तक दो कभी मेरी नज़्मों पर ज़रा...
मैंने यहाँ एक ख़ूबसूरत जहाँ बसा रक्खा है !!!




मौसिकी से दिल बहलाने की खातिर
सारा इन्तेज़ाम पहले ही करा रक्खा है
पसंद का तुम्हारी इस हद तक ख़याल रखा कि
दरवाज़े पर नाम तक तुम्हारा लिखा रक्खा है

दस्तक दो कभी मेरी नज़मों पर ज़रा...
मैंने यहाँ एक ख़ूबसूरत जहाँ बसा रक्खा है !!!

सँभलना ज़रा.... कि वहाँ एक ठोकर-सी है
मैंने वहाँ शिकायतों की पोटली को गाढ़ रक्खा है
कुरेदना नहीं हैं तुम्हें भी इसे कभी
तख़्ती पर ये साफ अल्फाज़ों में लिखा रक्खा है

दस्तक दो कभी मेरी नज़्मों पर ज़रा...
मैंने यहाँ एक ख़ूबसूरत जहाँ बसा रक्खा है !!!

दहलीज़ पर नक्काशी गज़ब की है
झरोखों का भी खूब खयाल रक्खा है
किश्तों की फिज़ूलियत से बचने के लिए
एक मुश्त इंतेज़ाम करा रक्खा है

दस्तक दो कभी मेरी नज़्मों पर ज़रा...
मैंने यहाँ एक ख़ूबसूरत जहाँ बसा रक्खा है !!!


ये छत के झूमर में जो हीरे हैं न
एक-एक याद से सहेजे गए हैं
बिखर न जाएँ कहीं ये कभी टूटकर
मैंने इनका भी बीमा करा रक्खा है

दस्तक दो कभी मेरी नज़्मों पर ज़रा...
मैंने यहाँ एक ख़ूबसूरत जहाँ बसा रक्खा है !!!

दो राय

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हम जैसे थे..
तो वो भी बस अपने दिल की ही मानते थे

आज कहते हैं..
बेटा..!! हम उस वक्त भी तुमसे ज़्यादा जानते थे

ख़ुद से तो
तंगहाल में भी तंगदिली नहीं दिखाई जाती

पर इल्ज़ाम रखते हैं कि...
आजकल के बच्चे शेख़ी ज़्यादा मारते हैं

कुछ ख़ामियाँ ज़रूर हैं...
मानती हूँ मैं पर...

मुनासिब नहीं...
सारे इल्ज़ामात हम पर

जो ये बार-बार ज़माने की हवा का हवाला देते हो
उड़ानों को क्यों बंदिशों का तक़ाज़ा देते हो

सबब हमारा कभी
आपकी पेशानी पर सिलवटें लाना नहीं होता

पर कुछ ख़्वाहिशें हैं..कुछ सपने हैं..
जिनके बिना गुज़ारा नहीं होता

ख़िलाफ़त तो नहीं पर
कुछ ना-इत्तेफाक़ियाँ ज़रूर एक मत हैं

हम अपनी ज़िन्दगी पर कुछ इख़्तियार चाहें
तो हम कहाँ ग़लत हैं..!!!



तूफानों के थपेड़ों में
जब हमारा सफ़ीना फँस जाया करता

कोई राह नज़र न आती
और दिल डूब जाया करता

कोसते रह गए कि-
''ग़लती की है तो भुगतो !!''

उदासी और गहरा जाती कि
कम-से-कम आपने तो बड़प्पन दिखाया होता..

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