इस जलती बुझती लौ को आखिर
कब तक यूँ सँभलना है...!!!
लड़ना है क्या हर रोज़ हवा से
क्या हर दम यूँ दम भरना है..!!!
शबनम की बूंदों को कहिये
कब तक मोती बन चमकना है..!!!
कब गिरना है... कब उठना है...
कब तक यूँ सिमटना है...!!!
पहरे है ं क्या हवा पर भी तुम्हारे
क्या उसको भी थम- थम चलना है..!!!
बारिश की बूँदों से बोलो
कब किसको भिगोना है..!!!
इस तपती-जलती धरती पर
कब तक पाँव न धरना है..!!!
औरों की ख़ुशियों की ख़ातिर
कब तक दीपक बन जलना है..!!!
याद आने वाले से पूछो
रात के कौन-से पहर तक जगना है.!!!
ख़ुद से ख़ुद तक का ये लम्बा सफर
आखिर कब तक करना है..???