Sunday, December 13, 2020

आखिर कब तक...???

Don't Forget to give your reviews in the comment section.... 




इस जलती बुझती लौ को आखिर
कब तक यूँ  सँभलना है...!!! 

लड़ना है क्या हर रोज़ हवा से
क्या हर दम यूँ दम भरना है..!!! 

शबनम की बूंदों को कहिये
कब तक मोती बन चमकना है..!!! 

कब गिरना है... कब उठना है... 
कब तक यूँ सिमटना है...!!! 

पहरे है ं क्या हवा पर भी तुम्हारे
क्या उसको भी थम- थम चलना है..!!! 

बारिश की बूँदों से बोलो
कब किसको भिगोना है..!!! 


इस तपती-जलती धरती पर
कब तक पाँव न धरना है..!!! 

औरों की ख़ुशियों की ख़ातिर
कब तक दीपक बन जलना है..!!! 

याद आने वाले से पूछो
रात के कौन-से पहर तक जगना है.!!! 

ख़ुद से ख़ुद तक का ये लम्बा सफर 
आखिर कब तक करना है..??? 



Tuesday, August 4, 2020

इक अधूरी मुलाकात

Don't Forget to give your reviews in the comment section....

धुन जो गुनगुनाई थी कल साथ मिलकर
तरानों की शक्ल में आज वो सामने आती है

झोपड़ी जो बनाई थी हमने अपने ख़्वाबों की
इस महल पर अक्सर भारी पड़ जाती है



वो तुम्हारी ग़ुस्ताख़ियां... और वो मेरी समझाईशें
मिलतीं हैं अकेले में तो मंद-मंद मुस्काती हैं

हसरतों की फेहरिस्त लंबी है यारा...
पगली हैं न... हक़ीक़त जानना ही नहीं चाहतीं हैं

वो किलोमीटर-से लंबे पैग़ाम अब भी पढ़ते हो क्या..???
जवाब तो जानती हैं.. फिर भी यही सवाल दोहराती हैं..

आख़िर बार याद है !! जो बड़ी देर तक अपना नाम सुनते रहे थे
यक़ीं मानो.. ये धड़कनें अब भी बस वही नाम दोहराती हैं

दिल तो शिद्दत से करता है सारी बेड़ियां तोड़ आऊं मैं
फिर दबे पांव ये समझदारी न जाने कहां से आ जाती है

अपने ही वजूद से लड़ती हूं रोज़ मैं
हर रोज़ ज़िम्मेदारी.. इश्क़ पर भारी पड़ जाती है

तरस गई है ये आंखें तुम्हारी इक झलक को
अब तो बस चांद के ज़रिए ही मुलाकात हो पाती है








Monday, June 8, 2020

एक आशियाना ऐसा भी...

Don't Forget to give your reviews in the comment section....

लफ़्ज़ों को तहज़ीब से सहेजकर

लहज़े से सिलवटों को निकाल रक्खा है
क़ाफ़िये के बिछौने पर मैंने
ग़ज़लों के तकिये को सजा रक्खा है

दस्तक दो कभी मेरी नज़्मों पर ज़रा...
मैंने यहाँ एक ख़ूबसूरत जहाँ बसा रक्खा है !!!




मौसिकी से दिल बहलाने की खातिर
सारा इन्तेज़ाम पहले ही करा रक्खा है
पसंद का तुम्हारी इस हद तक ख़याल रखा कि
दरवाज़े पर नाम तक तुम्हारा लिखा रक्खा है

दस्तक दो कभी मेरी नज़मों पर ज़रा...
मैंने यहाँ एक ख़ूबसूरत जहाँ बसा रक्खा है !!!

सँभलना ज़रा.... कि वहाँ एक ठोकर-सी है
मैंने वहाँ शिकायतों की पोटली को गाढ़ रक्खा है
कुरेदना नहीं हैं तुम्हें भी इसे कभी
तख़्ती पर ये साफ अल्फाज़ों में लिखा रक्खा है

दस्तक दो कभी मेरी नज़्मों पर ज़रा...
मैंने यहाँ एक ख़ूबसूरत जहाँ बसा रक्खा है !!!

दहलीज़ पर नक्काशी गज़ब की है
झरोखों का भी खूब खयाल रक्खा है
किश्तों की फिज़ूलियत से बचने के लिए
एक मुश्त इंतेज़ाम करा रक्खा है

दस्तक दो कभी मेरी नज़्मों पर ज़रा...
मैंने यहाँ एक ख़ूबसूरत जहाँ बसा रक्खा है !!!


ये छत के झूमर में जो हीरे हैं न
एक-एक याद से सहेजे गए हैं
बिखर न जाएँ कहीं ये कभी टूटकर
मैंने इनका भी बीमा करा रक्खा है

दस्तक दो कभी मेरी नज़्मों पर ज़रा...
मैंने यहाँ एक ख़ूबसूरत जहाँ बसा रक्खा है !!!

दो राय

Don't Forget to give your reviews in the comment section....



हम जैसे थे..
तो वो भी बस अपने दिल की ही मानते थे

आज कहते हैं..
बेटा..!! हम उस वक्त भी तुमसे ज़्यादा जानते थे

ख़ुद से तो
तंगहाल में भी तंगदिली नहीं दिखाई जाती

पर इल्ज़ाम रखते हैं कि...
आजकल के बच्चे शेख़ी ज़्यादा मारते हैं

कुछ ख़ामियाँ ज़रूर हैं...
मानती हूँ मैं पर...

मुनासिब नहीं...
सारे इल्ज़ामात हम पर

जो ये बार-बार ज़माने की हवा का हवाला देते हो
उड़ानों को क्यों बंदिशों का तक़ाज़ा देते हो

सबब हमारा कभी
आपकी पेशानी पर सिलवटें लाना नहीं होता

पर कुछ ख़्वाहिशें हैं..कुछ सपने हैं..
जिनके बिना गुज़ारा नहीं होता

ख़िलाफ़त तो नहीं पर
कुछ ना-इत्तेफाक़ियाँ ज़रूर एक मत हैं

हम अपनी ज़िन्दगी पर कुछ इख़्तियार चाहें
तो हम कहाँ ग़लत हैं..!!!



तूफानों के थपेड़ों में
जब हमारा सफ़ीना फँस जाया करता

कोई राह नज़र न आती
और दिल डूब जाया करता

कोसते रह गए कि-
''ग़लती की है तो भुगतो !!''

उदासी और गहरा जाती कि
कम-से-कम आपने तो बड़प्पन दिखाया होता..

Sunday, May 17, 2020

तो आ....

Don't Forget to give your reviews in the comment section....

आराम... मेरी फितरत ही नहीं,
थककर चूर होने तलक संग मेरे चल सके...
तो आ..!!

मिसरे.. क़ाफिए.. रूबाई.. का इल्म नहीं मुझे,
तू मेरी गज़ल के अशार समझ सके...
तो आ..!!

लड़खड़ाना.. तो है आदत मेरी,
तू सम्भलने से ज्यादा मेरे संग गिर सके...
तो आ..!!


किनारे खड़े होकर मदद की पेशकश??
नहीं... नहीं.. नहीं..,,
तू भँवर में मेरे संग डूब सके...
तो आ..!!

खुशियों में तो ज़माना साथ हो आता है,
रात की तन्हाईयों में मेरे संग, तकिया भिगो सके...
तो आ..!!



सुन..!!
ये फूलों से लदा बग़ीचा.. मुझे रास नही आता,
तू मेरे लिए काँटे बो सके... तो आ..!!


सजदों से पूरी इबादत तो कर.. आया हूँ मैं...
अपनी दुआओं में तू मुझे पढ़ सके... तो आ..!!

कालिख़-सा हूँ, हर कोई दामन बचाना चाहे मुझसे,
तू काजल-सा अपनी आँखों मे सजा सके...
तो आ..!!


जानता हूँ, कुछ बेमिला...कुछ सनकी-सा हूँ मैं,
तू मेरी सनक  को अपने आँचल मे सँजो सके...
तो आ..!!

ये इत्र की बारिश़.. मुझ पर लाख़ करें दुनिया,
तू मेरी कस्तूरी को खोज़ सके... तो आ..!!
तू मेरी कस्तूरी को खोज़ सके... तो आ..!!

Listen full poem in audio form on...
POCKET FM app:
https://pocketfm.app.link/2o3Vm02Ay6

Monday, May 11, 2020

आ तो गया हूं मै तेरे पास ज़रा....ज़रा और आना बाकी है...

Don't Forget to give your reviews in the comment section....

मेरे दिल के बेहद करीब...पेश है ये नज़्म....


तुम हो जैसे बहती नदी सी कोई,
आराम तुझे ग़वारा नही...
तेरे थकने मे गुज़र जायेंगे जमाने,
अभी तो इस नदी का सागर मे मिलना बाकी है,

चला तो हूँ मै संग तेरे कुछ, कुछ और चलना बाकी है..
आ तो गया हूं मै तेरे पास ज़रा, ज़रा और आना बाकी है।।

तेरी लिखी-सुनाई ये ग़ज़ल,
सुनी है हमने बहुत बार...
समझ तो लिया है तेरी गजल का हर एक एहसास,
अब बस इसे गुनगुनाना बाकी है

चला तो हूं मै संग तेरे कुछ, कुछ और चलना बाकी है..
आ तो गया हूं मै तेरे पास ज़रा, ज़रा और आना बाकी है।।

लड़खड़ाता तो आया हूँ तेरे संग आज तक,
तुम कहो अगर तो मुझे गिर भी जाना है..
नही रखेंगे उम्मीद कि तू मदद मांगे हमसे किनारे तक लाने की..
हम कूद जायेंगे भँवर में, अभी तेरे संग डूब जाना बाकी है...

चला तो हूं मै संग तेरे कुछ, कुछ और चलना बाकी है..
आ तो गया हूं मै तेरे पास ज़रा, ज़रा और आना बाकी है।।


तेरी हर खुशी में मै साथ था,
तेरे हर गम में बनकर मै एहसास था...
हर ग़म बाँटा था हमने संग...
बस रात में तकिया भिगोना बाकी है..

चला तो हूं मै संग तेरे कुछ, कुछ और चलना बाकी है..
आ तो गया हूं मै तेरे पास ज़रा, ज़रा और आना बाकी है।।

कभी फूल तो, कभी काँटे-सा ही
तो बना हु मैं तेरी राहो में...
दुआओ में भी पढ़ा है मैने तुझे,
बस उन दुआओ को हक़ीकत बनाना बाकी है...


चला तो हूं मै संग तेरे कुछ, कुछ और चलना बाकी है..
आ तो गया हूं मै तेरे पास ज़रा, ज़रा और आना बाकी है।।


कालिख सा होकर भी
तेरी चमक से रोशन है दुनिया मेरी...
बस इस कालिख को अपनी आँखो में,
काजल बनाना बाकी है...

चला तो हूं मै संग तेरे कुछ, कुछ और चलना बाकी है..
आ तो गया हूं मै तेरे पास ज़रा, ज़रा और आना बाकी है।।

तेरे बेमिली- सी आदत में भी मिलन है मेरा,
तेरी हर सनक पे नाज़ है मुझे...
बस तेरी ऐसे ही सनक-पागलपन को,
अपने आँचल में सँजोये रखना बाकी है...

चला तो हूं मै संग तेरे कुछ, कुछ और चलना बाकी है..
आ तो गया हूं मै तेरे पास ज़रा, ज़रा और आना बाकी है।।

जो खुद इत्रदान हो उसे क्या जरूरत है,
दुनिया के इस इत्र के बारिश की..??
मेरी साँसों तक में बसी है खुश्बू तेरी,
बस अब तेरी कस्तूरी को खोज लाना बाकी है

चला तो हूं मै संग तेरे कुछ, कुछ और चलना बाकी है..
आ तो गया हूं मै तेरे पास ज़रा, ज़रा और आना बाकी है।।

- तड़प-ए-इश्क 💝😍

Sunday, May 10, 2020

ख़ूबसूरत क़ैद



अपने ख़्यालों में अक्सर वो
मुझ पर मुक़दमा दर्ज कराता है 🙈

उसके चेहरे के हाव-भाव से
मुद्दा कुछ संगीन नज़र आता है 😵

अदालत भी उसकी..मुहाफ़िज़ भी वो..
दलीलें भी उसकी.. अमन-ओ-आमान भी वो 😓

क्या कहा..... ये इन्साफ़ नहीं है...!!!!
अजी..!!! इन्साफ़ की यहाँ दरकार नहीं है 💗


इल्ज़ामातों के सिलसिले का
अब  आग़ाज़  होता  है......

शुरु  में  झूठ-मूट  का
वो मुझ से नाराज़ होता है 😏

उधर खड़ी कटघरे में..मैं
मंद-मंद  मुस्काती  हूँ...😚

उसकी सारी कोशिशों को
जब सिफ़र मैं पाती हूँ

दलीलों के वक्त जब उसकी आँखें
मेरी आँखों से मिल जाती है

मुस्कान उसके होठों पर
बिखरने को आमादा हो जाती है 😊😍

सब उसके हक़ में होने पर भी
मैं बा-इज़्ज़त रिहा हो जाती हूँ

पर समझाऊँ कैसे उस बुद्धू को
कि मैं रिहा होना कहाँ चाहती हूँ 🙆


मुहाफ़िज़ : फैसला सुनाने वाला, जज
अमन-ओ-आमान: कानून ओेैर व्यवस्था

Wednesday, April 22, 2020

ख़लिश




शब ही तो थी जो गुज़री
तेरे ख़्वाब लिये बग़ैर

                                 इक मुद्दत थी गुज़ारी
तेरा साथ लिये बग़ैर


इक नींद थी जिसकी ख़्वाबग़ाह
होती थी ये निगाहें

बैठी है मुझसे रूठकर
किसी से पर्दा किये बग़ैर



ये चाँद भी आज छिप गया
बादलों की ओट में ऐसे
किसी दुल्हन को देख लिया जैसे
कोई श्रृंगार किये बग़ैर

ऐ दोस्त..!! अर्ज़ है
इतनी ही आज तुझसे

कुछ न करना और ग़र करना
तो मुझे पशेमाँ किये बग़ैर


एक मिसरे ही से बात कही
कोई नज़्म कहे बग़ैर

सब कर दिया बयाँ
अल्फाज़ कहे बग़ैर


उस शहर का वो आशियाँ
राह तकता होगा न तुम्हारी

कर आए जिसको मुफ़्लिस
सुपुर्द किसी के किये बग़ैर

पर नोंच लिये न उसके
तुम्हारी दीद भारी पड़ गई
वो तितली नहीं रुकती वरना
गुल को गुलिस्तां किये बग़ैर

featured Posts by Readers

जीत

Don't Forget to give your reviews in the comment section.... जीवन का हर क़दम जो फूँक-फूँक कर रखते हैं इन पैचीदा गलियों से जो ज़रा सँभल कर...

Popular posts