Wednesday, April 22, 2020

ख़लिश




शब ही तो थी जो गुज़री
तेरे ख़्वाब लिये बग़ैर

                                 इक मुद्दत थी गुज़ारी
तेरा साथ लिये बग़ैर


इक नींद थी जिसकी ख़्वाबग़ाह
होती थी ये निगाहें

बैठी है मुझसे रूठकर
किसी से पर्दा किये बग़ैर



ये चाँद भी आज छिप गया
बादलों की ओट में ऐसे
किसी दुल्हन को देख लिया जैसे
कोई श्रृंगार किये बग़ैर

ऐ दोस्त..!! अर्ज़ है
इतनी ही आज तुझसे

कुछ न करना और ग़र करना
तो मुझे पशेमाँ किये बग़ैर


एक मिसरे ही से बात कही
कोई नज़्म कहे बग़ैर

सब कर दिया बयाँ
अल्फाज़ कहे बग़ैर


उस शहर का वो आशियाँ
राह तकता होगा न तुम्हारी

कर आए जिसको मुफ़्लिस
सुपुर्द किसी के किये बग़ैर

पर नोंच लिये न उसके
तुम्हारी दीद भारी पड़ गई
वो तितली नहीं रुकती वरना
गुल को गुलिस्तां किये बग़ैर

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