शब ही तो थी जो गुज़री
तेरे ख़्वाब लिये बग़ैर
इक मुद्दत थी गुज़ारी
तेरा साथ लिये बग़ैर
इक नींद थी जिसकी ख़्वाबग़ाह
होती थी ये निगाहें
बैठी है मुझसे रूठकर
किसी से पर्दा किये बग़ैर
ये चाँद भी आज छिप गया
बादलों की ओट में ऐसे
किसी दुल्हन को देख लिया जैसे
कोई श्रृंगार किये बग़ैर
ऐ दोस्त..!! अर्ज़ है
इतनी ही आज तुझसे
कुछ न करना और ग़र करना
तो मुझे पशेमाँ किये बग़ैर
एक मिसरे ही से बात कही
कोई नज़्म कहे बग़ैर
सब कर दिया बयाँ
अल्फाज़ कहे बग़ैर
उस शहर का वो आशियाँ
राह तकता होगा न तुम्हारी
कर आए जिसको मुफ़्लिस
सुपुर्द किसी के किये बग़ैर
पर नोंच लिये न उसके
तुम्हारी दीद भारी पड़ गई
वो तितली नहीं रुकती वरना
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