धुन जो गुनगुनाई थी कल साथ मिलकर
तरानों की शक्ल में आज वो सामने आती है
झोपड़ी जो बनाई थी हमने अपने ख़्वाबों की
इस महल पर अक्सर भारी पड़ जाती है
वो तुम्हारी ग़ुस्ताख़ियां... और वो मेरी समझाईशें
मिलतीं हैं अकेले में तो मंद-मंद मुस्काती हैं
हसरतों की फेहरिस्त लंबी है यारा...
पगली हैं न... हक़ीक़त जानना ही नहीं चाहतीं हैं
वो किलोमीटर-से लंबे पैग़ाम अब भी पढ़ते हो क्या..???
जवाब तो जानती हैं.. फिर भी यही सवाल दोहराती हैं..
आख़िर बार याद है !! जो बड़ी देर तक अपना नाम सुनते रहे थे
यक़ीं मानो.. ये धड़कनें अब भी बस वही नाम दोहराती हैं
दिल तो शिद्दत से करता है सारी बेड़ियां तोड़ आऊं मैं
फिर दबे पांव ये समझदारी न जाने कहां से आ जाती है
अपने ही वजूद से लड़ती हूं रोज़ मैं
हर रोज़ ज़िम्मेदारी.. इश्क़ पर भारी पड़ जाती है
तरस गई है ये आंखें तुम्हारी इक झलक को
अब तो बस चांद के ज़रिए ही मुलाकात हो पाती है