Saturday, February 13, 2021

उड़ जा काले कावां(revived) lyrics Movie-Gadar

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https://youtu.be/IsvVGfwyUsE

जादू इश्क का अक्सर ही कुछ ऐसा होता है
लाख  पहरों में भी रंग  और गहरा  होता  है
माही हाथ न छूटे...अब ये साँस भले ही टूटे
दूरी के चंद लम्हे भी अब....चैन अपना लूटे

कि घर आजा परदेसी... कि तेरी मेरी इक जिंदड़ी...
ओ घर आजा परदेसी.. कि तेरी मेरी इक जिंदड़ी...

याद में तेरी अक्सर ही हम खोेए रहते हैं...
दर्द  तेरे.. अब इस दिल में सोए  रहते हैं...
कितने सावन बीते बैरी....... हाय....
कितने सावन बीते बैरी... याद न तुझको आई
ख़्वाबों में भी सोचा न था होगा ऐसी जुदाई...

ओ कि घर आजा परदेसी... कि तेरी मेरी इक जिंदड़ी...
ओ घर आजा परदेसी.. कि तेरी मेरी इक  जिंदड़ी
कि घर आजा परदेसी... कि तेरी मेरी इक जिंदड़ी...

उड़ जा काले कावां तेरे मुँह विच खण्ड पावां
ले जा तू संदेसा मेरा मैं सदके जावां
बागों में फिर झूले पड़ गए... पक गईयां मिठि्ठयाँ अम्बियाँ
इक छोटी सी ज़िन्दगी ते... रातां लम्बियाँ....लम्बियाँ...

ओ घर आजा परदेसी... कि तेरी मेरी इक जिंदड़ी...
ओ घर आजा परदेसी.. कि तेरी मेरी इक  जिंदड़ी

गाँव की मिट्टी.. झूले..नहरें... याद करते हैं...
तुम से मिलने की हम भी फरियाद करते हैं
लौट आ... अब तो बरसों बीते मेरे दिलबर जानी...
याद में तेरी... यार के तेरी आँखों में है पानी...

कि घर आजा परदेसी... कि तेरी मेरी इक जिंदड़ी...
ओ घर आजा परदेसी.. कि तेरी मेरी इक  जिंदड़ी
ओ कि घर आजा परदेसी... कि तेरी मेरी इक जिंदड़ी

ओ..ओ...ओ...ओ....ओ.........
ओ..ओ...ओ...ओ....ओ.........

तब्दीली

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दुनिया के इस पस-ओ-पेश से
डरना - घबराना छोड़ने लगे
                  कमसिन  जब समझदार हुए
                  हक़लाना - तुतलाना छोड़ने लगे

ज़रूरत के समय जो छोड़ गया ज़माना
मग़रूर थे.. वो भी ज़माना छोड़ने लगे
                 लड़खड़ाते क़दमों की रुसवाई से तंग आकर
                 लोग  आबाद  हुआ  मयख़ाना  छोड़ने  लगे

ख़ुद की ही अच्छाई ने जब ठग लिया उन्हें
तो वो मुफ़लिसों पर तरस खाना छोड़ने लगे
 
जब मालूम हुआ..हर महफिल में
वही शेर..हर बार.. उसी अदा से
पढ़ने का उनका हुनर
हम उनके उस शेर पर मुस्कुराना छोड़ने लगे

इल्म हुआ जब.. कि मंज़िल तो बरहक़ है
साज़-ओ-सामान के साथ सफर पर जाना छोड़ने लगे

देखा है.. महलों की ख़्वाहिश में अक्सर
लोग बसा-बसाया आशियाना छोड़ने लगे
                  दीवार-ओ-दरों  को ग़मगीं कर
                  पंछी जब आज़ाद हुए क़ैदखाना छोड़ने लगे


ज़ख़्म जब-जब  नासूर हुआ
सब उस पर दवा लगाना छोड़ने लगे
                   आँखों से काजल के चोरी होने का सुन
                   वो अपनी आँखों में सुरमा लगाना छोड़ने लगे

                   ब-दस्तूर रूठे रहने को आदत मान
                    वो अब हमें मनाना छोड़ने लगे

तब्दीली    - बदलाव           मग़रूर - घमण्डी
मुफ़लिसों - गरीबों              बरहक़ - अटूट सच
ग़मगीं  -    दुःखी                 -दस्तूर - यथावत

क्या वो अब भी इश्क़ करता होगा..??

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अपने दिन का हर एक हिस्सा,
कल तक मुझसे बाँटा करता था
मेरी  यादों में अक्सर जो...
रातों को जागा करता था




अपने तकिये को हम दोनों ने
एक-दूजे के नामों से नवाज़ा था
दीवानगी की हद थी वो तो...
समझदारी से कौनसा तकाज़ा था !! 

मेरी एक-एक तस्वीर को वो बुद्दु,
ना जाने कितनी ही बार निहारा करता था
मेरी आँखों से अक्सर वो...
मेरी रूह तक झाँका करता था

हर लम्हें मे सपने बुनना
उसको अच्छा लगता था
प्यार भरे हर तराने में
बस वो मुझे महसूस करता था

कई दिनों से मेरी उससे
बात नही हो पाई है...
ख़ता इसमें उसकी नहीं कोई
शामिल इसमें मेरी ही मनाई है

क्या करती फिर...??वो नहीं समझता!! 
ज़िन्दगियाँ अब है बदली हुई...
सपने थे सुनहरे कल तक जो
धुँध उन पर अब है चढ़ी हुई

ख़फा है... नफरत कर नहीं पाता
वो मुझसे ज़्यादा दिन नाराज़ रह नही पाता

पर उसकी ज़रा सी नाराजगी भी
कई नफरतों से भारी है...
मै सहन नहीं कर पाती इसको
आँखों से चश्में जारी है


उसके वो लम्बे पैग़ाम
मुझे बहुत याद आते हैं
भरी महफिल में भी अक्सर
मुझे तन्हा महसूस कराते हैं

कब खाता होगा... कब पीता होगा...
क्या वो अब भी चैन से जीता होगा..?

कब उठता होगा... कब सोता होगा...
क्या वो भी छिप-छिपकर रोता होगा..?

अपने दोस्तों से जब भी
मेरा ज़िक्र वो करता होगा
क्या "बेवफा" जैसे नामों से
वो सम्बोधन करता होगा !! 

आधी रात में जब भी
उसकी नीन्दे टूटा करती होंगी
मेरी यादें उस पागल को
सोने नहीं दिया करती होंगी

अपने खाली वक्त में कल तक
जो 'परी' को निहारा करता था



अपने पसंद के नेता पर जो
शान बघारा करता था

आज की तारीख में वो 
पुराने  msgs पढ़ता रहता है



बस SS देखा करता है
और आँखों को नम करता रहता है

मेरे हिस्से का छोड़ो अब तो
अपने हिस्से से भी कम हँसता होगा
क्या अब भी मरता होगा मुझ पर वो !! 
क्या मुझसे अब भी "इश्क़" करता होगा..??

Sunday, December 13, 2020

आखिर कब तक...???

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इस जलती बुझती लौ को आखिर
कब तक यूँ  सँभलना है...!!! 

लड़ना है क्या हर रोज़ हवा से
क्या हर दम यूँ दम भरना है..!!! 

शबनम की बूंदों को कहिये
कब तक मोती बन चमकना है..!!! 

कब गिरना है... कब उठना है... 
कब तक यूँ सिमटना है...!!! 

पहरे है ं क्या हवा पर भी तुम्हारे
क्या उसको भी थम- थम चलना है..!!! 

बारिश की बूँदों से बोलो
कब किसको भिगोना है..!!! 


इस तपती-जलती धरती पर
कब तक पाँव न धरना है..!!! 

औरों की ख़ुशियों की ख़ातिर
कब तक दीपक बन जलना है..!!! 

याद आने वाले से पूछो
रात के कौन-से पहर तक जगना है.!!! 

ख़ुद से ख़ुद तक का ये लम्बा सफर 
आखिर कब तक करना है..??? 



Tuesday, August 4, 2020

इक अधूरी मुलाकात

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धुन जो गुनगुनाई थी कल साथ मिलकर
तरानों की शक्ल में आज वो सामने आती है

झोपड़ी जो बनाई थी हमने अपने ख़्वाबों की
इस महल पर अक्सर भारी पड़ जाती है



वो तुम्हारी ग़ुस्ताख़ियां... और वो मेरी समझाईशें
मिलतीं हैं अकेले में तो मंद-मंद मुस्काती हैं

हसरतों की फेहरिस्त लंबी है यारा...
पगली हैं न... हक़ीक़त जानना ही नहीं चाहतीं हैं

वो किलोमीटर-से लंबे पैग़ाम अब भी पढ़ते हो क्या..???
जवाब तो जानती हैं.. फिर भी यही सवाल दोहराती हैं..

आख़िर बार याद है !! जो बड़ी देर तक अपना नाम सुनते रहे थे
यक़ीं मानो.. ये धड़कनें अब भी बस वही नाम दोहराती हैं

दिल तो शिद्दत से करता है सारी बेड़ियां तोड़ आऊं मैं
फिर दबे पांव ये समझदारी न जाने कहां से आ जाती है

अपने ही वजूद से लड़ती हूं रोज़ मैं
हर रोज़ ज़िम्मेदारी.. इश्क़ पर भारी पड़ जाती है

तरस गई है ये आंखें तुम्हारी इक झलक को
अब तो बस चांद के ज़रिए ही मुलाकात हो पाती है








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