Tuesday, February 16, 2021

जीत

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जीवन का हर क़दम जो
फूँक-फूँक कर रखते हैं
इन पैचीदा गलियों से जो
ज़रा सँभल कर गुज़रते हैं

गिरते हैं.....उठते हैं.....
लड़खड़ाकर फिर गिरते हैं
                        पर फिर जब उठते हैं..
तो इतिहास नए रचते हैं...

जीतते वो नहीं... जो जीतने का हुनर रखते हैं
जीतते वो हैं... जो फौलादी जिगर रखते हैं 

फ़रेब हुआ कितनी बार... 
सबक़ लिया उतनी बार...
अपनी ग़लतियों को कोसने में
जो  वक़्त  ज़ाया न करते हैं...
कमज़ोरी पर फ़तह पाकर अपनी
जो गर्व अनुभव करते हैं
ख़ुद से.. ख़ुद के मिलने पर
जश्न  हमेशा  करते  हैं......

जीतते वो नहीं... जो जीतने का हुनर रखते हैं
जीतते वो हैं... जो फौलादी जिगर रखते हैं

काँटों भरी राहों पर 
जो सफ़र अकेले करते हैं
क़ाफिले भी उनके साथ
 होने   का  दम  भरते  हैं
अपने वजूद पर बंदिशों को
हावी  नहीं  जो  करते  हैं
                          हर भँवर से वीरों की तरह
                          हँसकर..अकेले ही निकलते हैं

जीतते वो नहीं... जो जीतने का हुनर रखते हैं
जीतते वो हैं... जो फौलादी जिगर रखते हैं

Monday, February 15, 2021

उस शख़्स का जवाब- part 2

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To be continued....
इंतज़ार करने के लिए शुक्रिया..!!

मुझे अजीब ठहरा कर जो ग़ैर बुनियादी इल्ज़ामात मुझ पर पिछली post में लगाए गए.. यूँ तो सभी मुझे ख़ुशी से क़ुबूल हैं.. पर आप ख़ुद ही फैसला करें वो सब कहाँ तक सही हैं..!!!!!! क्योंकि............


मेरी शख़्सियत पर ये इल्ज़ाम मुनासिब नहीं
सिक्के का बस एक ही पहलू जानो तो ये वाजिब नहीं 😞

हाँ....... तुम्हारी तरतीबी पर मुझे ऐतराज़ है
जानना चाहोगी.... इस के पीछे क्या राज़ है !!!

तो सुनो! तुम्हारी सभी ग़लतियाँ मुझे अच्छी लगती हैं
सोने से पहले उन्हें न सोचूँ तो वो रात ही मुझे अधूरी लगती है

नुक़्स का क्या कहूँ...वो तो मुझे दिखाई ही नहीं देते
पर क्या अल्फ़ाज़ दग़ाबाज़ हुए.. जो तुम्हें सुनाई नहीं देते

तुम्हारी ज़ुल्फ़ों का आज़ाद रहना मुझे उम्दा लगता है
उसके पीछे से झाँकता हसीं चेहरा सबसे अलहदा लगता है

शख़्सियत को तुम्हारी बयां ये ब-ख़ूबी करता है
खोने से जिसे यह दिल.. हमेशा से डरा करता है😍

बुरा लगता है जब तुम मसरूफ़ कहीं और हो जाती हो
पल-दो-पल को भी तवज्जो... तुम जब न फरमाती हो 😞

नज़रें जब न मिल पाएँ तो बातें कईं रह जाती हैं
और मन की मुराद मिलने पर शरारतें सूझ ही जाती हैं 😉

उन बाज़ू की सिलवटें हटाना मेरे लिए रूहानियत है
तुम्हें हो न हो... पर मानो उन्हें तो बस मेरी ही आदत है

तुम्हारे वो तराजू से तुले लफ़्ज़ मुझे ग़ैर बनाते हैं
अपनों से कुछ कहने में हम भला कब हिचकाते हैं ?? 😣

उस बेबाक अन्दाज़ से ही तो.. तुम ख़ुद को 'तुम' बनाती हो
कोशिश ही क्यों करती हो...जब मुझ से कुछ छिपा ही नहीं पाती हो !!!

ग़लतियों पर तवज्जो नहीं रहती मेरी अक्सर
पर उस सुर्ख़ चेहरे की ख़ातिर..क्या कुछ कर जाऊँ ????

बातों को अधूरी छोड़ने की उस अदा पर तो
कितने ही जनम लूँ...और फिर मर जाऊँ !!!!

पर हाँ..मुझे ऐतराज़ है तुम्हारे रूठ जाने से
रूठ जाने से नहीं.. बल्कि मेरे न मना पाने से 😢

पर ग़नीमत है...इस रियाज़ से मैं इतना तो हूँ कह सकता
मुझसे ज़्यादा वक़्त तक कोई रूठा नहीं रह सकता 😊

आख़िरी जुमले का जवाब मिलकर ही दूँ तो मैं सही हूँ
ऐसा मौका छोड़ दूँ..आख़िर मैं इतना भी अजीब नहीं हूँ😜😘

नुक़्स- ग़लतियाँ
अलहदा- जुदा
रियाज़-अभ्यास


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https://daureparvaaz.blogspot.com/2019/06/part-1.html?m=1#links

वो शख़्स part -1

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बड़ा अजीब है वो शख़्स.....

तरतीब* से किये गए काम
उसे  पसंद  ही नहीं  आते
कुछ काम में मुझसे छूटे कुछ नुक़्स*
उसे कोई अन्जानी-सी ख़ुशी दे जाते

बड़ा अजीब है वो शख़्स.....

मैं जब भी ज़ुल्फ़ों को करीने* से बाँधू
तो उसकी नज़रें कुछ शिकायत करने लगती हैं
मसरूफ़ियत* में यूँ ही नज़रें यहाँ-वहाँ घुमाकर कुछ कह दूँ
तो जान बूझकर वो मेरी बातों को अनसुना कर देता है

मेरी क़मीज़ के वो सलीक़ेदार बाज़ू उसे परेशान कर देते हैं
मेरे नपे-तुले लफ़्ज़ उसकी पेशानी* को सिलवटों से भर देते हैं

बड़ा अजीब है वो शख़्स.....

उसे पसंद है.. मेरा कुछ ग़लतियों को दोहराना
यां कुछ कहते-कहते अचानक से रुक जाना
बात -बे-बात मेरा  बस यूँ ही रूठ जाना
शरारत में उसके बढ़ते क़दमों परमुसलसल*पीछे चलते जाना

पता नहीं क्यों...???? पर बड़ा अजीब है वो शख़्स..!!!!!!

तरतीब - क्रम, sequence
नुक़्स - ग़लतियाँ, mistakes

करीने- साफ सुथरे तरीके से, neatly
मसरूफ़ियत - व्यस्तता, busy schedule

पेशानी - ललाट, forehead
मुसलसल - लगातार, constantly




यह थी मेरी एक नई कोशिश...उम्मीद है आप सबको पसंद आएगी...
पर  यह शिकायत कुछ एकतरफा थी... उम्मीद है इस post के ज़रिए यह शिकायत उस अजीब शख़्स तक पहुँचे... और वो जल्द ही इसके पीछे के राज़ हम सबके साथ साझा करे... इंतज़ार करियेगा...

To be continued....

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Saturday, February 13, 2021

उड़ जा काले कावां(revived) lyrics Movie-Gadar

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For whole song...pls hit the link...
https://youtu.be/IsvVGfwyUsE

जादू इश्क का अक्सर ही कुछ ऐसा होता है
लाख  पहरों में भी रंग  और गहरा  होता  है
माही हाथ न छूटे...अब ये साँस भले ही टूटे
दूरी के चंद लम्हे भी अब....चैन अपना लूटे

कि घर आजा परदेसी... कि तेरी मेरी इक जिंदड़ी...
ओ घर आजा परदेसी.. कि तेरी मेरी इक जिंदड़ी...

याद में तेरी अक्सर ही हम खोेए रहते हैं...
दर्द  तेरे.. अब इस दिल में सोए  रहते हैं...
कितने सावन बीते बैरी....... हाय....
कितने सावन बीते बैरी... याद न तुझको आई
ख़्वाबों में भी सोचा न था होगा ऐसी जुदाई...

ओ कि घर आजा परदेसी... कि तेरी मेरी इक जिंदड़ी...
ओ घर आजा परदेसी.. कि तेरी मेरी इक  जिंदड़ी
कि घर आजा परदेसी... कि तेरी मेरी इक जिंदड़ी...

उड़ जा काले कावां तेरे मुँह विच खण्ड पावां
ले जा तू संदेसा मेरा मैं सदके जावां
बागों में फिर झूले पड़ गए... पक गईयां मिठि्ठयाँ अम्बियाँ
इक छोटी सी ज़िन्दगी ते... रातां लम्बियाँ....लम्बियाँ...

ओ घर आजा परदेसी... कि तेरी मेरी इक जिंदड़ी...
ओ घर आजा परदेसी.. कि तेरी मेरी इक  जिंदड़ी

गाँव की मिट्टी.. झूले..नहरें... याद करते हैं...
तुम से मिलने की हम भी फरियाद करते हैं
लौट आ... अब तो बरसों बीते मेरे दिलबर जानी...
याद में तेरी... यार के तेरी आँखों में है पानी...

कि घर आजा परदेसी... कि तेरी मेरी इक जिंदड़ी...
ओ घर आजा परदेसी.. कि तेरी मेरी इक  जिंदड़ी
ओ कि घर आजा परदेसी... कि तेरी मेरी इक जिंदड़ी

ओ..ओ...ओ...ओ....ओ.........
ओ..ओ...ओ...ओ....ओ.........

तब्दीली

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दुनिया के इस पस-ओ-पेश से
डरना - घबराना छोड़ने लगे
                  कमसिन  जब समझदार हुए
                  हक़लाना - तुतलाना छोड़ने लगे

ज़रूरत के समय जो छोड़ गया ज़माना
मग़रूर थे.. वो भी ज़माना छोड़ने लगे
                 लड़खड़ाते क़दमों की रुसवाई से तंग आकर
                 लोग  आबाद  हुआ  मयख़ाना  छोड़ने  लगे

ख़ुद की ही अच्छाई ने जब ठग लिया उन्हें
तो वो मुफ़लिसों पर तरस खाना छोड़ने लगे
 
जब मालूम हुआ..हर महफिल में
वही शेर..हर बार.. उसी अदा से
पढ़ने का उनका हुनर
हम उनके उस शेर पर मुस्कुराना छोड़ने लगे

इल्म हुआ जब.. कि मंज़िल तो बरहक़ है
साज़-ओ-सामान के साथ सफर पर जाना छोड़ने लगे

देखा है.. महलों की ख़्वाहिश में अक्सर
लोग बसा-बसाया आशियाना छोड़ने लगे
                  दीवार-ओ-दरों  को ग़मगीं कर
                  पंछी जब आज़ाद हुए क़ैदखाना छोड़ने लगे


ज़ख़्म जब-जब  नासूर हुआ
सब उस पर दवा लगाना छोड़ने लगे
                   आँखों से काजल के चोरी होने का सुन
                   वो अपनी आँखों में सुरमा लगाना छोड़ने लगे

                   ब-दस्तूर रूठे रहने को आदत मान
                    वो अब हमें मनाना छोड़ने लगे

तब्दीली    - बदलाव           मग़रूर - घमण्डी
मुफ़लिसों - गरीबों              बरहक़ - अटूट सच
ग़मगीं  -    दुःखी                 -दस्तूर - यथावत

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